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شرح الكتاب المقدس - العهد القديم - القمص أنطونيوس فكري

مزمور 142 (141 في الأجبية) - تفسير سفر المزامير

 

* تأملات في كتاب المزامير لـ داؤود (مزامير داود):
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صلى داود هذا المزمور وهو مختبئ في مغارة هاربًا من وجه شاول. هو مزمور صلاة لنفس متألمة، لم تجد معونة من البشر وكان ملجأها الوحيد هو الله فصرخت إليه لينقذها.

في الساعة الثانية عشرة (وقت صلاة النوم) كان المسيح قد دفِنَ. ونزل إلى الجحيم ليخرج كل أسرى الرجاء. وكأنه وهو رأس الذين خرجوا من الجحيم إلى الفردوس يقول أخرج من الحبس نفسي = إخرجني من حبس الجسد لكي تنطلق روحي المتحدة بلاهوتي وتحرر القديسين الموجودين في الجحيم على رجاء. ولذلك نصلي هذا المزمور في صلاة النوم، لنذكر أننا بعد موتنا تخرج أرواحنا من حبس الجسد وحبس العالم إلى الراحة إذ فتح لنا المسيح الباب (رو24:7).

 

الآيات (1، 2): "بِصَوْتِي إِلَى الرَّبِّ أَصْرُخُ. بِصَوْتِي إِلَى الرَّبِّ أَتَضَرَّعُ. أَسْكُبُ أَمَامَهُ شَكْوَايَ. بِضِيقِيْ قُدَّامَهُ أُخْبِرُ."

علينا أن نتعلم أن لا نشتكي سوى لله فهو القادر وحده على خلاصنا وليس غيره.

 

الآيات (3، 4): "عِنْدَ مَا أَعْيَتْ رُوحِي فِيَّ، وَأَنْتَ عَرَفْتَ مَسْلَكِي. فِي الطَّرِيقِ الَّتِي أَسْلُكُ أَخْفَوْا لِي فَخًّا. انْظُرْ إِلَى الْيَمِينِ وَأَبْصِرْ، فَلَيْسَ لِي عَارِفٌ. بَادَ عَنِّي الْمَنَاصُ. لَيْسَ مَنْ يَسْأَلُ عَنْ نَفْسِي."

في بعض الأحيان من شدة الضيق وكثرة المؤامرات الشريرة ضد الإنسان يشعر أنه غير قادر على الاحتمال= أَعْيَتْ رُوحِي فِيَّ = أصبح الحمل أعظم من أن يبقى على كتفي. ولذلك قال السيد المسيح "تعالوا إليَّ يا جميع المتعبين والثقيلي الأحمال وأنا أريحكم". أَنْظُرْ إِلَى الْيَمِينِ وَأَبْصِرْ = إشارة للقوة البشرية، فالإنسان يمسك سلاحه بيده اليمين، وقد تعني أي قوة بشرية مثل الأصدقاء الأقوياء. وهذا حدث مع المسيح في هذا الموقف إذ تخلى عنه الجميع. لكن عموما فكل من وضع رجاءه في البشر لينقذوه فهو يجري وراء سراب، ويقبض على هواء.

 

الآيات (5-7): "صَرَخْتُ إِلَيْكَ يَا رَبُّ. قُلْتُ: «أَنْتَ مَلْجَإِي، نَصِيبِي فِي أَرْضِ الأَحْيَاءِ». أَصْغِ إِلَى صُرَاخِي، لأَنِّي قَدْ تَذَلَّلْتُ جِدًّا. نَجِّنِي مِنْ مُضْطَهِدِيَّ، لأَنَّهُمْ أَشَدُّ مِنِّي. أَخْرِجْ مِنَ الْحَبْسِ نَفْسِي، لِتَحْمِيدِ اسْمِكَ. الصِّدِّيقُونَ يَكْتَنِفُونَنِي، لأَنَّكَ تُحْسِنُ إِلَيَّ.

الحبس= قد يشير لكثرة الأحزان، إذ حاصره الأعداء فصار كأنه في حبس. الصِّدِّيقُونَ يَكْتَنِفُونَنِي، لأَنَّكَ تُحْسِنُ إِلَيَّ= أي يحيطون بي، يفرحون لخلاصي، يسبحونك معي على كل أعمالك العجيبة معي. (انظر المزيد عن هذا الموضوع هنا في موقع الأنبا تكلا في أقسام المقالات والتفاسير الأخرى). أَخْرِجْ مِنَ الْحَبْسِ نَفْسِي = قد يعني الخروج من الحبس، الخروج من الجسد حينما ننام نومًا نهائيًا بالموت حينئذ يحيط بنا كل الصديقين والملائكة في فرح أبدي لذلك اشتهى الرسول أن ينطلق ليحاط بكل هؤلاء الصديقين (في23:1). هناك يكون نصيبي في أرض الأحياء. . أليس هذا بالضبط ما حدث مع لعازر المسكين إذ أحاطت به الملائكة لتحمل نفسه إلى الفردوس ويعيش للأبد مسبحاً الله في فرح (لو16: 19-31) = أَخْرِجْ مِنَ الْحَبْسِ نَفْسِي، لِتَحْمِيدِ اسْمِكَ.

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